Bhagwan ke Choubis Avtaro ki Katha - 1 in Hindi Mythological Stories by Renu books and stories PDF | भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 1

The Author
Featured Books
  • तमस ज्योति - 51

    प्रकरण - ५१मेरे मम्मी पापा अब हमारे साथ अहमदाबाद में रहने आ...

  • Lash ki Surat

    रात के करीब 12 बजे होंगे उस रात ठण्ड भी अपने चरम पर थी स्ट्र...

  • साथिया - 118

    अक्षत घर आया और तो देखा  हॉल  में ही साधना और अरविंद बैठे हु...

  • तीन दोस्त ( ट्रेलर)

    आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहे हैं हम एक नया उपन्यास जिसका...

  • फाइल

    फाइल   "भोला ओ भोला", पता नहीं ये भोला कहाँ मर गया। भोला......

Categories
Share

भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 1


अचिन्त्य परमेश्वर की अतर्क्स लीला से त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा जब सृष्टि-प्रवाह होता है तो उस समय रजोगुण से प्रेरित वे ही परब्रह्म परमात्मा सगुण होकर अवतार ग्रहण करते हैं। वस्तुतः यह जगत् परमात्मा का लीला-विलास है, लीलारमण का आत्माभिरमण है, इसलिये भगवान् अपनी लीला को चिन्मय बनाने के लिये अपने ही द्वारा निर्मित जगत् में अन्तर्यामी रूप से स्वयं प्रविष्ट भी हो जाते हैं ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्।’ वे परम प्रभु अजायमान होते हुए भी बहुत रूपों में लीला करते हैं ‘अजायमानो बहुधा विजायते।’ उनकी यह लीला उनके अपने आनन्द-विलास के लिये होती है, जिसके फलस्वरूप भक्तों की कामनाएँ भी पूर्ण हो जाती हैं। भगवान का अपने नित्य धाम से पृथ्वी पर लीला-अवतरण ही 'अवतार’ कहा जाता है। कल्प भेद से भगवान्‌ ने अनेक अवतार धारणकर अपने लीला-चरित से सन्तजन-परित्राण, दुष्टदलन और धर्मसंस्थापन के कार्य किये हैं। उनके अनन्त अवतार हैं, अनन्त चरित्र हैं और अनन्त लीला-कथाएँ हैं। यहाँ उनमें से चौबीस प्रमुख अवतारों का संक्षिप्त निदर्शन प्रस्तुत किया जा रहा है—

(१) मत्स्यावतार की कथा— (१) ब्रह्माजी के सोने का जब समय आ गया और उन्हें नींद आने लगी, उस समय वेद उनके मुख से निकल पड़े और उनके पास ही रहने वाले हयग्रीव नामक दैत्य ने उन्हें चुरा लिया। ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय होने से सारे लोक समुद्र में डूब गये। श्रीहरि ने हयग्रीव की चेष्टा जान ली और वेदों का उद्धार करने के लिये मत्स्यावतार ग्रहण किया। द्रविड़ देश के राजर्षि सत्यव्रत बड़े भगवत्परायण थे। वे मलयपर्वत के एक शिखर पर केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे। ये ही वर्तमान महाकल्प में वैवस्वत मनु हुए। एक दिन कृतमाला नदी में तर्पण करते समय उनकी अंजली में एक छोटी-सी मछली आ गयी, उन्होंने उसे जल के साथ फिर नदी में छोड़ दिया। उसने बड़ी प्रार्थना की कि मुझे जलजन्तु खा लेंगे, मेरी रक्षा कीजिये। राजा ने उसे जलपात्र में डाल लिया। वह इतनी बढ़ी कि कमण्डलु में स्थान न रहा, तब राजा ने उसे एक बड़े मटके में रख दिया। दो घड़ी में वह तीन हाथ की हो गयी तब उसे एक बड़े सरोवर में रख दिया। थोड़ी ही देर में उसने महामत्स्य का आकार धारण किया। जिस किसी जलाशय में रखते, उसी से वह बड़ी हो जाती। तब राजा ने उसे समुद्र में छोड़ दिया, उसने बड़ी करुणा से कहा—राजन् ! आप मुझको इसमें न छोड़े मेरी रक्षा करें। तब उन्होंने प्रश्न किया 'मत्स्यरूप धारण करके मुझको मोहित करने वाले आप कौन हैं? आपने एक ही दिन में ४०० कोस के विस्तार का सरोवर घेर लिया। आप अवश्य ही सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं। आपने यह रूप किस उद्देश्य से ग्रहण किया है ?’ तब भगवान्‌ ने कहा— आज से सातवें दिन तीनों लोक प्रलयकालीन समुद्र में डूब जायँगे। तब मेरी प्रेरणा से एक बड़ी भारी नाव तुम्हारे पास आयेगी। उस समय तुम समस्त प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों को लेकर सप्तर्षियों के समेत उस पर चढ़ जाना और समस्त औषधियों और बीजों को साथ रख लेना। जब तक ब्रह्मा की रात्रि रहेगी, तब तक मैं तुम्हारी नौका को लिये समुद्र में विहार करूंगा और तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दूंगा। यह कहकर मत्स्य भगवान् अन्तर्धान हो गये। प्रलयकाल में वैसा ही हुआ, जैसा भगवान्‌ ने कहा था। मत्स्यभगवान् प्रकट हुए। उनका शरीर सोने के समान देदीप्यमान था और शरीर का विस्तार चार लाख कोस का था। शरीर में एक बड़ा भारी सींग भी था। वह नाव वासुकी नाग से सींग में बाँध दी गयी। सत्यव्रत जी ने भगवान्‌ की स्तुति की। भगवान्‌ ने प्रसन्न होकर उन्हें अपने स्वरूप का सम्पूर्ण परम रहस्य और ब्रह्म-तत्त्व का उपदेश किया, जो मत्स्यपुराण में है। ब्रह्मा की नींद टूटने पर भगवान्‌ ने हयग्रीव को मारकर श्रुतियाँ ब्रह्माजी को लौटा दीं। (श्रीमद्भागवत)

(२) समुद्र का एक पुत्र शंख था। इसने देवताओं को परास्त करके उनको स्वर्ग से निकाल दिया, सब लोकपालों के अधिकार छीन लिये। देवता मेरुगिरि की कन्दराओं में जा छिपे, शत्रु के अधीन न हुए। तब दैत्य ने सोचा कि देवता वेदमन्त्रों के बल से प्रबल प्रतीत होते हैं। अतः मैं वेदों का अपहरण करूंगा। ऐसा निश्चय करके वह वेदों को हर लाया। ब्रह्माजी कार्तिक की प्रबोधिनी एकादशी को भगवान्‌ की शरण गये। भगवान्‌ ने आश्वासन दिया और मछली के समान रूप धारण करके आकाश से वे विन्ध्यपर्वतनिवासी कश्यपमुनि की अंजलि में गिरे। मुनि ने करुणावश उसे क्रमशः कमण्डलु, कूप, सर, सरिता आदि अनेक स्थानों में रखते हुए अन्त में उसे समुद्र में डाल दिया। वहाँ भी वह बढ़कर विशालकाय हो गया। तदनन्तर उन मत्स्यरूपधारी भगवान्‌ ने शंखासुर का वध किया और विष्णुरूप में उसे हाथ में लिये वे बदरीवन में गये। वहाँ सम्पूर्ण ऋषियों को बुलाकर आदेश दिया कि जल के भीतर बिखरे हुए वेदों की खोज करो और रहस्यसहित उनका पता लगाकर शीघ्र ही ले आओ।’ तब तेज और बल से सम्पन्न समस्त मुनियों ने यज्ञ और बीज सहित वेदमन्त्रों का उद्धार किया। जिस वेद के जितने मन्त्रों को जिस ऋषि ने उपलब्ध किया, वही उतने भाग का तब से ऋषि माना जाने लगा। ब्रह्मा समेत सब ऋषियों ने आकर प्राप्त किये हुए वेदों को भगवान्‌ को अर्पण कर दिया। (पद्मपुराण)

(३) दिति के मकर, हयग्रीव, महाबलशाली हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, जम्भ और मय आदि पुत्र हुए, मकर ने ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्माजी को मोहित करके उनसे सम्पूर्ण वेद ले लिये। इस प्रकार श्रुतियों का अपहरण करके वह महासागर में घुस गया। फिर तो सारा संसार धर्मशून्य हो गया। ब्रह्माजी की प्रार्थना से भगवान् मत्स्य-रूप धारण करके महासागर में प्रविष्ट हुए और मकर दैत्य को थूथुन के अग्रभाग से विदीर्ण करके उन्होंने मार डाला और अंग-उपांगों सहित सम्पूर्ण वेदों को लाकर ब्रह्माजी को समर्पित कर दिया। (पद्मपुराण)